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आरोप करती है। पर यदि देखा जाय तो कान्ट ने वास्तव सत्ता के अस्तित्व की जगह यह कह कर पहले से ही रख ली थी कि मानस संस्कार अज्ञेय वस्तुसत्ता के प्रभाव से होते है और बहुत संभव है कि चित् के इन स्वरूपो की तह में जो वस्तुसत्ता है वह इन्हीं के कुछ कुछ मैल मे हो। जो हो, इतना तो निर्विवाद है कि कान्द ने चित् या प्रमाता से बाह्य किसी अज्ञेय वस्तुसत्ता का अस्तित्व माना है। उसके दर्शन में वाह्यार्थवाद की कुछ गंध बनी हुई है।

सच पूछिए तो कान्ट का सब से बड़ा काम 'शुद्ध बुद्धि की परीक्षा' ही है जिसके द्वारा उसने वाह्यार्थज्ञान के सामान्य अवयवो देश, काल और कार्यकारणसंबंध के वाह्य अस्तित्व का प्रतिषेध किया। योरप में अद्वैत आत्मवाद का मूलाधार यही हुआ। नीचे संक्षेप मे कुछ प्रमाण उद्धृत किए जाते हैं।

दिक् कोई बाह्य वस्तु नहीं, चित् का ही स्वरूप है।

( १ ) दिक् का ज्ञान बाहर से नही आता क्योकि जो कुछ प्रत्यक्षानुभव हमे होता है दिक् की भावना पहले करके तब होता है। प्रत्यक्षानुभव है क्या? मन अपने कुछ संवेदनो को अपने से बाह्य वस्तु से प्राप्त मानता है। इस अन्तर और बाह्य के ज्ञान मे देश का ज्ञान पहले से मिला हुआ है। इसी प्रकार वस्तुभेद के ज्ञान मे परत्व अपरत्व का देशसंबंधी ज्ञान मिला हुआ है।

( २ ) बाह्य जगत् की जो चित्र अपने मन मे हम धारण