पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२१ )


करते हैं उसमे से हमें सब कुछ निकाल सकते हैं, पर देश को नही अलग कर सकते। जगत् के जितने पदार्थ है सब के बिना हम जगत् की भावना कर सकते हैं पर देशशून्य जगत् की भावना हमारे चित्त मे हो ही नही सकती।

( ३ ) शुद्ध देश के सबंध मे जो निरूपण होते है वे अनिवार्य होते है, उनका अन्यथा संभव नही। जैसे किसी वस्तु तक पहुँचने के लिये यह आवश्यक है कि उसके और हमारे बीच जो देशखंड है वह तै किया जाय। इसी प्रकार किसी जगह न होना या एक साथ दो जगहो पर होना असंभव है। थोड़े विचार से यह स्पष्ट हो सकता है कि इस प्रकार के निश्चय उन निश्चयों से सर्वथा भिन्न है जो बराबर देखते देखते निरंतर अभ्यास द्वारा हमे प्राप्त होते हैं। अनुभव केवल हमे यही बता सकता है कि अबतक ऐसा नहीं हुआ है, यह निश्चय नहीं करा सकता कि त्रिकाल में ऐसा नहीं हो सकता।

( ४ ) रेखागणित के सब निरूपण नित्य और अपरिहार्य सत्य के रूप मे होते है, अतः वे बारबार के अनुभव से प्राप्त नही है। कहने की आवश्यकता नही कि ये निरूपण शुद्ध देशसंबंधी होते है।

( ५ ) प्रत्येक बाह्य अनुभव भिन्न भिन्न संवेदनो ( आत्मा या मन की अलग अलग अवस्थाओ या संस्कारो ) के योग से होता है जिनका मेरे साथ तो संबंध होता है पर परस्पर कोई संबंध नही होता। अतः उनको जोड़नेवाला, सवधसूत्र चित् से बाहर नही है, उसके भीतर है। यह संबंधसूत्र देश है जो हमारे चित्त का ही भाव या स्वरूप है।