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उपस्थित नही हो सकता, विषय रूप मे जब वह उपस्थित होगा तब देशकाल के योग मे अर्थात् भूत के रूप मे। भूत वास्तव मे देशकाल-व्यवस्थित कार्यकारणभाव का ही नाम है। इस भूत का भाव परिहार्य अपरिहार्य दोनो है। इस भूत का भाव हम चित्त से निकाल सकते हैं, पर जो भृत है उसका प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव मन मे नही धारण कर सकते। भूत के प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव ( उत्पाते और नाश ) की धारणा का असंभव होना इस बात को सूचित करता है कि हम उपस्थित भूत के अस्तित्व को अपने मन से किसी प्रकार निकाल नही सकते। अतः वह आत्मसत्ता से स्वतंत्र नही हैं, अर्थात् भूत भी चित् द्वारा ही प्रदत भाव है।

( ३ ) कार्यकारण-भाव अपरिहार्य है। किसी कार्य का कारण क्या है इसका अनिश्चय हमें हो सकता है पर कोई कारण है इसका निश्चय अवश्य रहता है। यदि कार्यकारणभाव हमे प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त होता तो जैसे और सब प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नियमो ( जैसे, नित्य सबेरे सूर्य्य का उदय होना ) की वैसे ही इसकी भी अन्यथा भावना हो सकती। बार बार के प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नियमो की भावना अपरिहार्य नहीं, कार्यकरण का भाव अपरिहार्य है। अतः वह प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नहीं है।

( ४ ) भौतिक विज्ञान के जो नियम प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त हुए हैं उन सबको यदि निकाल दे तो कोई क्रिया नहीं रह जायगी, क्रिया की संभावना (अर्थात् कार्य्यकारणभाव) मात्र रह जायगी दिक् काल द्वारा व्यवस्थित होने पर जिसकी प्रतीति