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भूत के रूप मे होती है। भूत की यह अक्रिय और सक्रिय भावना अपरिहार्य है, अतः चित्तप्रदत्त है।

( ५ )जब कि अलग अलग संस्कारो द्वारा दिक् काल का सूत्र नहीं प्राप्त होता तब कार्य और कारण के बीच का संबंधसुत्र अलग अलग प्रत्यक्षानुभव से कैसे प्राप्त हो सकता है? अतः व्यापार के रूप मे शक्ति की जो अभिव्यक्ति होती है उन्हे मन ही कार्यकारणभाव की व्यवस्था प्रदान करता है।

( ६ )कार्यकारण परपरा अनादि और अनंत है क्योकि जिस अवस्था को हम आदि मानेंगे उसका परिणाम होने के लिये कोई पूर्व परिणाम मानना पड़ेगा और अनवस्था आ जायगी। अनादि और अनत का भाव कभी किसी प्रत्यक्षानुभव द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। वह चित् का ही स्वरूप है।

अत:करण अपनी इन्हीं तीन व्यवस्थाओ ( दिक्, काल और कार्य्यकारणभाव ) द्वारा बाह्य जगत् का चित्र खींचता है। पहले तो वह संवेदनो को कालबद्ध कर पूर्वापर क्रम की भावना करता है। फिर कार्यकारणभाव द्वारा बाहर उसके कारण का आरोप करता है। अंत मे इस कारण को दिग्बद्ध कर भौतिक स्थूल पदार्थ के रूप मे उसकी भावना करता है। सारांश यह कि यह जगत् जो हम देखते हैं वह हमारे चित्त का ही खड़ा किया हुआ स्वरूप है, अर्थात् तत्व दृष्टि से मिथ्या है। यही तर्क विलायती वेदांत का आधार हुआ। कान्ट के इस निरूपण मे चित् से भिन्न उस पर संस्काररूप प्रभाव डालनेवाली अज्ञेय बाह्य सत्ता का स्वीकार