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है। अतः वाह्यार्थवाद को कुछ लेश उसमें बना हुआ है। इस अज्ञेय वाह्य सत्ता की भावना उसने शक्तिरूप मे की है। एक स्थान पर उसने कहा है कि भौतिक पदार्थ और कुछ नहीं "शक्तिपूरित दिक्खंड" मात्र है।

कांट मे जो कुछ वाह्यार्थवाद को लेश था उसे फिक्ट ने दूर कर दिया। उसने सूचित किया कि चित् से भिन्न उस पर प्रभाव डालनेवाली कोई वस्तु नही है, अत्मा पूर्ण और निरपेक्ष है। वह आप से आप उन स्वरूपो का उदय करती है जिसकी समष्टि को जगत् कहते है, किसी बाहरी वस्तु (भूत, शक्ति, अज्ञेय सत्ता या ईश्वर आदि) के प्रभाव या प्रेरणा से नही। जगत् पूर्णतया उसी की रचना है। आत्मा पहले अपना अवस्थान करती है, फिर अपने से भिन्न अनात्मा का और पीछे इस अनात्मा को अपने मे अवस्थान करती है। इसी पद्धति से वह जगत् की प्रतीति करती है । अत जो कुछ सत्ता है वह चैतन्य में ही, चैतन्य के बाहर नहीं *। मोहवश आत्मा को इस स्वावस्थान क्रिया का विस्मरण हो जाता है और उसे इस विवर्त्त द्वारा अनात्मा की भी स्वतंत्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार आत्मा के अवस्थानभेद मान कर फिक्ट ने विषय विषयी, ज्ञाता ज्ञेय, प्रमाता प्रमेय मे परमार्थभेद नहीं रखा। जिसे कांट ने अज्ञेय वस्तुसत्ता कहा था उसको भी फिक्ट ने विषय रूप में आत्मा का स्वावस्थान ही कह कर ज्ञेय बताया; क्यों कि जब वह आत्मा की ही स्वप्र--


*नहि आत्मनोन्यतू अनात्मभूत तत्। ---तेत्तिरीय भाष्य।