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आता है अर्थात् किस प्रकार एक परम चैतन्य विषय विषयी, ज्ञाता ज्ञेय, प्रमाता प्रमेय के भेद की ओर प्रवृत्त होता है और फिर भी अभेद रूप रहता है। इस प्रकार हेगल ने सत् और असत् दोनो का अंतर्भाव एक परमभाव में किया। हेगल के हाथ मे पड़ कर जर्मनी का भाववाद चरम सीमा को पहुँच गया।

हेगले के पीछे जर्मनी मे शोपेनहावर, हार्टमान, लोज, फेक्नर, पोलसन आदि कई भाववादी दार्शनिक हुए है। इनमे से शोपेनहावर ने बौद्ध आदि पूरबी दर्शनो और उपनिषदो का भी परिशीलन किया था। शोपेनहावर भी कांट का यह निरूपण स्वीकार कर के चला है कि बाह्य (नामरूपात्मक, दृश्य) जगत् चित् का भाव या प्रत्यय मात्र है, पर जगत की जो वस्तुसत्ता है वह कर्मसंकल्पवृत्ति या इच्छा स्वरूप है। यह कर्मप्रवृत्ति या कृतिशक्ति उद्देश्यज्ञानपूर्वक चेतन नही है, जड़ है। बुद्धि और चेतना क्या इसमे संवेदन तक नही, यह सर्वथा जड़ प्रवृत्ति है। इस प्रकार उसने फिक्ट, शेलिंग और हेगल के अनंत पूर्ण चैतन्य अर्थात् सर्वव्यापिनी चेतनसत्ता का प्रतिषेध किया और कहा कि अंध जड़ प्रवृत्ति या इच्छर ही परिणाम रूप से हम लोगो मे चैतन्य की उत्पत्ति करती है। यह दुःखमय संसार इसी रजोगुणमयी प्रवृत्ति या शक्ति का कार्य है। शोपेनहावर के दर्शन मे दुःखवाद भरा हुआ है। कामना की निवृत्ति से ही दु.ख की निवृत्ति हो सकती है। शोपेनहावर के अनुयायियों में ही ड्युसन हुए हैं जिन्हो ने वेदांत आदि भारतीय दर्शनों की भी आलोचना की है।