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वा विकार है। क्रियानुगत ज्ञाता ज्ञेय रूप मे केवल क्रियाओ का ज्ञान करता है, अपने स्वरूप का नही जो अखंड, निर्विशेष और अपरिणामी है। इससे सिद्ध हुआ कि परिणामबद्ध क्रिया या क्रियावीज शक्ति स्वतत्र सत्ता नहीं हो सकती, उसकी अक्षर सत्ता चैतन्य की सत्ता मे ही है। शक्ति का जो स्फुरण है उसका अधिष्ठान चैतन्य है। अतः चैतन्य ही एकमात्र शुद्ध सत्ता है। इस स्फुरण व्यापार मे ब्रह्म या चैतन्य का ही आभास मिलता है। "सर्व विशेषप्रत्यस्तमित स्वरूपत्वात् ब्रह्मणो बाह्यसत्तासामान्यविषयेण 'सत्य' शब्देन लक्ष्यते"--- (तैत्तिरीय भाष्य)। शुद्ध चैतन्यस्वरूप का केवल आभास मिल सकता है। उसका बोध केवल लक्षणा द्वारा हो सकता है साक्षात् संबंध द्वारा नही। जब कि सब प्राकृतिक व्यापार चैतन्य के ही लक्षणाभास है और हमे केवल इन्हीं लक्षणाभासी का ही ज्ञान हो सकता है तब इनके अनुसंधान को वेदांती अनावश्यक नही कह सकते।

इस संक्षिप्त निरूपण से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म अनंत ज्ञानस्वरुप और अनंत शक्तिस्वरूप दोनो है। इस शक्ति को ब्रह्म का संकल्प ही समझना चाहिये जो, अव्यक्तरूप में चैतन्य में अधिष्ठित रहता है। यह एक प्रकार से ज्ञान का ही एक अंग या पक्ष है जिसकी अभिव्यक्ति सर्गोन्मुख गति या क्रिया के रूप मे होती है। इसी अर्थ में ब्रह्म या चैतन्य को "भूतयोनि" (कारण ब्रह्म) कहते है। ज्ञाता ज्ञेय रूप से अपना अवस्थान कर क्रियारूप मे अपनी संकल्पशक्ति को व्यक्त करता है।