पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १३४ )


चित् का ही स्वरूप नहीं । यदि जगत के व्यापारो को हम चित्त के भाव या कल्पना मान लें तो फिर नाना विज्ञानों के जो अन्वेषण हैं वे व्यर्थ हैं। भौतिक व्यापार अपने नियमो के अनुसार तब से बराबर होते आ रहे हैं जब उनकी प्रतीति करनेवाले मनुष्य के चित्त का कहीं पता भी नहीं था। यदि भूत की सत्ता स्वतंत्र न होती तो एक ही बात का पता दो अलग अलरी अन्वेषकों को कैसे लगता। नेपचून नामक ग्रह का पता आडम्स और लंवरियर नामक ज्योतिषियो ने अपनी अपनी स्वतंत्र गणना के अनुसार एक ही समय मे पाया। इस प्रकार वाह्यार्थवादी अनेक युक्तियो से योरोपीय भाववादियो (अद्वैत आत्मवादियों) के निरूपण के प्रत्याख्यान में प्रवृत्त होते हैं। पर सच पूछिए तो वैज्ञानिको के अनुसंधान का द्वार भाववादी बंद नहीं करते है। सत्ता के पारमार्थिक स्वरूप का जो कुछ उन्होने प्रतिपादन किया है उसके साथ बाह्यार्थ क्रमविधान का समन्वय भी उन्होने किया है। कांट ने वस्तुसत्ता को शक्तिस्वरूपा कहा था, शोपेनहावर ने उसी शक्ति को संकल्प कहा। फिक्ट ने उस शक्ति को 'विषयी का विषयरूप से स्वावस्थान' कह कर उसका अधिष्ठान चैतन्य मे ही कर दिया था। पहले कही जा चुका है कि किस प्रकार भौतिक विज्ञान भूत या द्रव्य के मूलरूप का पता लगाते लगाते अत में शक्ति तक पहुँच रहा है। कुछ वैज्ञानिक अब कहने लगे हैं कि द्रव्य या भूत का सव से सूक्ष्म रूप* शक्ति ही है।


* अक्षरमव्याकृत नामरूपवीजशाक्तिरूप भूतसूक्ष्मम् शकरभाष्य।