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अतः विज्ञान के नाना अनुसंधानो का भाववादी यही समझेगे कि संकल्प या कृतिशक्ति के स्वरूप का निरूपण हो रहा है। जब कि इस संकल्प या क्रियाबीज की सत्ता भी चैतन्य सत्ता से स्वतंत्र नहीं, जब कि यह ज्ञान का ही एक विशेष (ज्ञेय) रूप मे अवस्थान है, जब किं इसके नाना विशेषो या क्रियाओं की तह में अधिष्ठान रूप से निर्विशेष चैतन्य व्याप्त है तब इस ज्ञेय के द्वारा ज्ञान, चैतन्य या ब्रह्म का ही आभास अध्यात्मवादी क्या न मानेगे?

प्रकृति के नाना व्यापारो के अनुसंधान द्वारा ही वैज्ञानिको को "भेद मे अभेद" इस गूढ़ तत्त्व की उपलब्धि हुई है जो सत्ता संबंधी ज्ञान का मूल है। भूतों की विशेष विशेष क्रियाओ के अभ्यास द्वारा ही क्रिया के एक निर्विशेष रूप अक्षर शक्ति तक विज्ञान पहुँचा है, नाना क्रियाएँ जिसकी अभिव्यक्ति मात्र है। विज्ञान के किसी क्षेत्र मे जाइए वहाँ एक सामान्य अनेक की तह में ओतप्रोत मिलेगा। यही सामान्य सत्ता के स्वरूप का आभास है।

नाना भेद के बीच जो अभेद मिलता जाय उसे सत्ता के स्वरूप के पास तक पहुँचता हुआ समझना चाहिए। शुद्ध विज्ञान अपने सूक्ष्म अन्वीक्षणो द्वारा सर्वभूत की सामान्य सत्ता, शक्ति, तक पहुँच रहा है। ईथर को एक अड़गा रह गया है। ईथर भी शायद एक दिन शक्तिरूप ही प्रमाणित हो जाय (अव्यक्तसव्याकृताकाशादिशब्द वाच्यम्--कठ भाष्य) । पहले कहा जा चुका है कि विज्ञान अपनी पद्धति से चैतन्य को इस भृतशक्ति के अंतर्गत करने में समर्थ नहीं हुआ है। अतः