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चैतन्य और शक्ति का ही द्वेत अब रह गया है। सांख्म ने जहाँ छोड़ा था वहीं पर विज्ञान ने भी ला कर छोड़ दिया है। सांख्य भी पुरष-प्रकृति का सदा सलामत रहनेवाला जोड़ा देख कर लौटा था।

अब इस द्वैत को लेकर दोनों प्रकार के अद्वैतवादो का क्या रूप होगा यह देखना चाहिए। अब या तो आधिभौतिक अद्वैत के अनुसार चैतन्य को शक्ति के अंतर्भूत करे या अद्वैत आत्मवाद के अनुसार शक्ति को चैतन्य के अतर्भूत करें----या तो शक्ति को चैतन्य का अधिष्ठान कहें, अथवा चैतन्य को शक्ति का। हैकल ने परमतत्व के भूत और शक्ति जो दो पक्ष कहे थे उनमें से भूत तो प्रायः शक्ति के ही अंतर्भूत हो गया। अतः उसका परमतत्व भी शक्तिरूप ही रह गया। उसने चैतन्य को इस शक्ति का ही एक रूप या क्षणिक परिणाम कहा है। योरप के भाववादी और भारत के वेदाती चैतन्य को ही शक्ति का अधिष्ठान कहेंगे जैसा कि वे बराबय कहते आए हैं। आधिभौतिकों या लोकायतिकों की इस युक्ति का उन पर कोई प्रभाव नही कि शरीर या मस्तिष्क के विकृत या नष्ट होने से चेतना भी विकृत या नष्ट होती है क्योंकि उनका पक्ष तो यह है कि मस्तिष्क (अंतःकरण चा बुद्धयादि जड़ क्रिया) के विकृत या नष्ट होने से केवल वह क्रियाविशेष नष्ट हो जाती है जिसके द्वारा चैतन्य के लक्षण का आभास मिलता है।

जब हैकल आदि कुछ वैज्ञानिक अपने क्षेत्रों से निकल कर ईश्वर, परलोक आदि के खंडन द्वारा ईसाई धर्म पर टूटे