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"प्राकृतिक पदार्थों के भीतर एक गूढ़ रहस्य भरा हुआ है। कट्टर वैज्ञानिक इस विषय मे जो बाते बतलाते हैं वे उनकी विद्या की पहुँच के अनुसार ठीक हैं, पर अंशतः । जब हम मोर की पूँछ की चंद्रिकाओ मे रंगो का चित्रविचित्र मेल देखते हैं कि किस प्रकार वे अपनी अपनी जगह पर एक निश्चित नमूने और नकशे को भरते हुए बैठे हैं तब यह कहना अत्यंत कठिन हो जाता है कि ऐसी क्रमव्यवस्था के साथ मेल केवल रासायनिक नियमो द्वारा होता है। फूल गर्भाधान के लिए कीड़ो को आकर्षित करते है और फल बीज को फैलाने के लिए जानवरो को‌। पर इस संबंध में इतनी ही व्याख्या काफी नही है। फूलो मे इतनी सुन्दरता केवल कीड़ो को आकर्षित करने के लिए ही नही है। हमे जीवन के लिए जो इतनी हाय हाय रहती है उसे समझना चाहिए। इस प्रयत्न का कोई रहस्य होगा और विकाश का कोई उद्देश्य होगा। 'प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत'जहाँ तक पहुँचता है हेतुनिरूपण करता है। पर यदि इतने सौन्दर्य की आवश्यकता कीड़ो के लिए है तो हम बन, पर्वत, मेघमाला आदि के सौन्दर्य के लिए क्या कहेगे? उनके सौन्दर्य से कौन सा काम निकलता है, कौन सा लौकिक अर्थसाधन होता है? विज्ञान सौन्दर्य्य का विवेचन नही करता। न करे, पर उसका अस्तित्व अवश्य है। मै केवल इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि हमारे अनुसंधान मे ब्रह्मांड की सारी बाते नहीं आ जातीं। इससे यदि हम निषेध करने चलते है और कहते हैं कि भूतविज्ञान और रसायन के ही अंतर्गत हम सारी बातो को ला सकते हैं तो हम केवल