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इन्द्र, मित्रं, वरुणामग्निमाहुरथो दिव्यस्से सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।

( ऋग्वेद म १।२ ।१६४।६४ )

उपनिषत्काल मे तो एक ब्रह्म की भावना पूर्णता को पहुँच गई थी और 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' 'नेह नानाऽस्ति किञ्चन' 'तत्वमसि' इत्यादि वेदांत के महावाक्यों का पूर्ण रूप से प्रचार हो गया था। ठीक इसी रीति से पृथ्वी पर की अत्यत प्राचीन खाल्दी जाति के बीच एक ईश्वर की भावना का विकाश हुआ था। ईसा से २००० वर्ष पूर्व के बाबुल के एक लेख मे वहाँ के भिन्न भिन्न देवता एक ही प्रधान देवता मरदक के भिन्न भिन्न रूप कहे गए है। एक नमूना देखिए---

नरगल युद्ध का मरदक है। बेलराजसत्ता का मरदूक है।

शम्श धर्म का मरदक है। अदु वषो का मरदक है।

नबो व्यापार का मरदक है।

जहाँ एकेश्वरवाद का पहले पहल तत्वदृष्टि द्वारा स्वाभाविक क्रम से विकाश हुआ वहाँ तो बहुदेववाद के साथ उसका पूरा समन्वय रहा और किसी प्रकार के द्वेष, कलह और उपद्रव का सूत्रपात नही हुआ, पर जहाँ उसकी कलम लगाया गया वहॉ आफत खड़ी हो गई। उपदेश देने में अधिकारियो का भेद इसी लिए किया जाता है। जब तक अंतःकरणविकाश द्वारा जिस ज्ञान का जो अधिकारी नहीं हो लेता तब तक न वह उसे पूरा पूरा ग्रहण ही कर सकता है, और न अधूरा ग्रहण करके पचा ही सकता है। बाबुल के इस एकेश्वरवाद