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बड़े अनर्थ संसार में हुए। अरब मे पहुँच कर उसने जो रूप धारण किया उसका साक्षी इतिहास है।

उपर्युक्त तीनो अनार्य ( शामी ) पैगंबरी मतों मे एक ईश्वर की जो प्रतिष्ठा हुई वह तत्त्वचितन के उपरांत नही, अतः उसमे उस व्यापकत्व का अभाव रहा जो उदार दृष्टि के लिए आवश्यक है। बहुदेवोपासना मे जो उदार भाव था वह इस एकेश्वरोपासन मे जाता रहा। बहुदेवोपासक जगत् मे अनेक देवता मानते थे इससे दूसरी जातियो को अपने से भिन्न देवताओ की उपासना करते देख वे द्वेष नहीं मानते थे। दूसरी जाति के देवताओ को ग्रहण करने या अपने देवताओ का नामांतर समझने तक के लिए वे तैयार रहते थे * । पर जिन जातियो के बीच इस पैगबरी एकेश्वरवाद का प्रचार हुआ वे एक ईश्वर को अपना अलग देवता मानने लगीं जिसका पारिचय यदि किसी को हो सकता था तो उन्ही के पैगंबरो


  • यूनानी लोग जब पहलेपहल भारतवर्ष में आए तब उन्होने शिव, विष्णु आदि देवताओ को अपन ज्युपिटर, हक्र्युलीज आदि देवताओं के ही रूपातर समझा। सभ्य और तत्वज्ञानसंपन्न होने के कारण उनके भाव उदार थे। ईसा से १४० वर्ष पूर्व के तक्षशिला के यूनानी राजा अंटियाल्किडस के राजदूत हेलिआडोरस ने, जो विदिशा के हिदू राजा के यहा रहती थी, वासुदेव प्रीत्यर्थं एक विशाल गरुड़स्तंभ बनवाया था जो अभी थोड़े दिन हुए बेसनगर (प्राचीन विदिशा ) में मिला था। उसकी इस विष्णुभक्ति की निंदा किसा यूनानी लेखक ने नहीं की है।