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किसी प्रकार का विप्लव नही हुआ। केनोपनिषद् में ब्रह्म के बोध के संबंध में एक गाथा है जो शायद ईसाई उपदेशको को बहुत पसंद आवे। एक बार एक बड़ा भारी यक्ष प्रकट हुआ। इंद्र ने अग्नि को उसका परिचय जानने के लिए भेजा है। अग्नि से उस यक्ष ने पूछा "तुम कौन हो और तुम्हारी शक्ति क्या है?" अग्नि ने कहा "मैं अग्नि हूं, यदि चाहूं तो क्षण भर मे सब लोका को भस्म कर सकता हूं।" यक्ष ने एक तिनका दिखा दिया और कहाँ---"इसे तो भस्म करो" । अग्नि ने बहुत यत्न किया पर वह तिनका न जला, ज्यो का त्यो रहा। फिर वायुदेवता उस यक्ष के पास गए । यक्ष ने पूछा"तुम कौन हो और तुम्हारी शक्ति क्या है?" वायु ने कहा---"मैं वायु हूँ, यदि चाहूं तो क्षण भर मे सब कुछ उड़ा सकता हूँ यक्ष ने वायु को भी वही तिनका दिखा कर कहा "इसे तो उड़ाओ"। वायु ने बहुत वेग दिखाया पर वह तिनका जगह से न हटा। अंत मे इंद्र आप वहाँ गए, पर उनके जाते ही यक्ष अंतद्धान होगया। इतने में वहाँ "उमा हैमवती" प्रकट हुई। उन्होने बताया कि वह यक्ष ब्रह्म था।

ब्रह्म या ईश्वर की इस स्थूल भावना से भी यहाँ किसी प्रकार का मतोन्माद नही उत्पन्न हुआ। बात यह थी कि जब आर्यजाति सम्यक् तत्वदृष्टि प्राप्त कर चुकी तब आगे चल कर 'एक' और 'अनेक' को लेकर झगड़ा करने की सभावना सब दिन के लिए जाती रही। अधिकारभेद से एक और अनेक की उपासना साथ साथ बराबर चलती रही। एक ब्रह्म का ज्ञान हो जाने पर भी अनेक देवताओ के निमित्त