पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १५४ )


यज्ञादि होते रहे, बंद नहीं हो गए। अनेकत्व और एकत्व के चीच इस अविरोधबुद्धि ने हिदूधर्म के क्षेत्र को आरंभ ही से ऐसा अपरिमित रखा कि वह व्यक्तिबद्ध न होने पाया, उसमे वह संकीर्णता न आने पाई जो व्यक्ति विशेष के आश्रित पैरावरी मतों मे देखी जाती है। कर्म, ज्ञान और उपासना तीनो काडों के परस्पर संबद्ध होने से जिस प्रकार एक में ऊँची नीची श्रेणियाँ मानी गई उसी प्रकार दूसरे में भी। एक सत्य से दूसरे, दूसरे से तीसरे, इस प्रकार छोटे से बड़े, फिर उससे बड़े सत्य की अखंड परंपरा स्वीकृत की गई। इंगलैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक हर्बर्ट स्पेसर ने भी यही कहा है कि कोई मत कैसा ही हो उसमे कुछ न कुछ सत्य का अंश रहता है। भूतप्रेतवाद से लेकर बड़े बड़े दार्शनिक वादो तक सब मे एक बात समान रूपसे देखी जाती है कि सब के सब संसार का मूल कोई अज्ञेय और अप्रमेय रहस्य समझते है जिसका वर्णन प्रत्येक मत करना चाहता है, पर कर नहीं सकता। इसी बात पर दृष्टि रखने से हिंदुओ को दूसरी जातियो से अनाचार और अस्वच्छता ( अशौच ) आदि के कारण चाहे कुछ घृणा रही हो, पर अन्य देवता की उपासना के कारण द्वेष रखने की प्रवृत्ति नही हुई। श्रीकृष्ण भगवान् की स्पष्ट कहना है कि येऽप्यन्य देवताभक्ता येजते श्रद्धयान्विताः । तेऽपिमामेव, कौन्तेय, यजंत्यविधिपूर्वकम् । केवल 'अविधि पूर्वकम्' के लिए मारकाट की कोई जरूरत नही समझी गई।

प्राचीन आर्य ( भारतीय ) धर्म में धर्माधर्म ईश्वर की किसी विशेष रूप मे भावना या किसी देवता विशेष की आरा