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घना पर नहीं ठहराया गया। वेदव्यास जी ने अत्यंत उदार भाव से कहा है कि धर्मात्मा पुरुष वर्णाश्रमधर्म ( आर्य या हिंदूधर्म ) के बाहर भी हैं। उन्होंने आर्यधर्म को न जानने या न माननेवाली विदेशीय जातियो को धर्मशून्य नहीं बताया। श्रीकृष्ण ने कहा है---'ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्' । यही कारण है कि प्राचीन आर्यों को अपना आचार और अपना विचार दूसरो के गले मढ़ने की उत्कंठा नही हुई। देशकाल के अनुसार जहां जो धर्मव्यवस्था स्थापित थी वहाँ के लिए वे उसी को उपयुक्त समझते थे। उपनिषत्काल मे एक ईश्वर या ब्रह्म की भावना परिपक्व होकर पूर्णरूप स जब प्रतिष्ठित हुई तब तक भूमंडल पर शायद बाबुल को छोड़ और कहीं नहीं हुई थी। पर उस एक ईश्वर या ब्रह्म को लेकर प्राचीन आर्य दूसरी सभ्य या असभ्य जातियों का गला काटने के लिए नहीं दौड़े थे। उन्हें यह पूर्ण ज्ञान था कि यह 'एक' 'अनेक' की समष्टि है अथवा 'अनेक' इस 'एक' के ही आभास हैं।

जैसा पहले कहा जा चुका है 'भेदो में अभेद' दृष्टि ही सच्ची तत्वदृष्टि है। इसी के द्वारा सत्ता का आभास मिल सकता है। यही अभेद ज्ञान और धर्म दोनो का लक्ष्य है। विज्ञान इसी अभेद की खोज मे है, धर्म इसी की ओर दिखा रहा है।

रामचन्द्र शुक्ल।

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