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शासन-व्यवस्था चाहे नियंत्रित हो चाहे अनियंत्रित इसकी कोई बात नहीं।

सर्वसाधारण की शिक्षा की ओर ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि उसकी दशा भी हमारे इस वैज्ञानिक उन्नति के युग के अनुकूल नही है। भौतिक विज्ञान, जो कि इतने महत्त्व का है, यदि स्कूल में पढ़ाया भी जाता है तो गौण रूप से। प्राय: प्रधान स्थान उन मृतप्राय भाषाओ और पुरानी बातो की शिक्षा को दिया जाता है जिनसे अब कोई लाभ नही। साराश यह कि इस बात का जैसा चाहिए वैसा प्रयत्न नही हो रहा है कि जनता से अंधविश्वास दूर हो और लोगो को बुद्धिबल द्वारा सुख और उन्नति का पर्थ प्राप्त करने का अवसर मिले। सर्वसाधारण अभी उन्हीं पुराने विचारो मे बद्ध रक्खे गए हैं जिनकी निसारता भली भाँति सिद्ध हो चुकी है। पुराने किस्से कहानियों और आकाशवाणियो के आगे बुद्धि का कुछ ज़ोर चलने नहीं पाता। क्या दर्शन, क्या धर्म, क्या न्याय, सब इन पुराने बंधनो से जकड़े हुए हैं।

उपर्युक्त अव्यवस्था के प्रधान कारणों मे से एक वह है जिसे हम "पुरुषवाद" कह सकते हैं। इस शब्द के अंतर्गत वे समस्त लोकप्रचलित और प्रबल भ्रांत मत है जो मनुष्य को संपूर्ण प्रकृति से एक ओर करके उसे चर सृष्टि का दैव-निश्चित परम लक्ष्य बतलाते हैं। इन विचारो के अनुसार मनुष्य संपूर्ण सृष्टि से परे और ईश्वरांश है। यदि इन विचारों की अच्छी तरह परीक्षा करें तो जान पड़ेगा कि ये तीन रूपो मे संसार मे पाए जाते हैं--पुरुषोत्कर्षवाद्, पुरुषाकारवाद और पुरुयार्चनवाद।