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(१) पुरुषोत्कर्षवाद को भाव यह है कि मनुष्य सृष्टि का दैवनिश्चित परम लक्ष्य है, वह आदि ही से बड़ा बना कर भेजा गया है। यह भ्रांति मनुष्य के स्वार्थ के अनुकूल है और तीनो शामी पैगंबरी मतों की ( यहूदी, ईसाई और मुसल्मान ) सृष्टिकथा से संबंध रखती है अत: इसका प्रचार भूमंडल के बहुत बडे भाग मे है।

(२) पुरुषाकारवाद भी इन तीनो तथा और अनेक मतो से संबंध रखता है। यह जगत् की सृष्टि और परिचालन को एक चतुर कारीगर की रचना और एक बुद्धिमान् राजा के शासन के सदृश बतलाता है। इसके अनुसार पृथ्वी को बनाने, धारण करने और चलानेवाला ईश्वर मनुष्य ही की तरह विचार और काम करनेवाला है। फिर तो बनी बनाई बात है कि मनुष्य ईश्वर-सदृश है। बाइबिल मे लिखा है-"ईश्वर ने मनुष्य को अपने ही आकार का बनाया" । प्राचीन सीधे सादे देववाद मे देवता मनुष्य ही की तरह रक्त मांस के शरीरवाले समझे जाते थे। प्राचीन देववाद तो किसी प्रकार समझ मे आ भी सकता है, पर आज कल का निराकार-ईश्वरवाद विलक्षण है जिसमे ईश्वर को एक ऐसा अगोचर या हवाई जंतु मान कर आराधना की जाती है जो मनुष्यो की तरह विचार करता, बोलता और काम करता है।

(३) पुरुषार्चनवाद भी मनुष्य और ईश्वर के व्यापारो के मिलान का फल है। यह मनुष्य मे ईश्वरत्व के गुण का आरोप करता है। इसी से आत्मा के अमरत्व का विश्वास उत्पन्न हुआ है और मनुष्य के जड ( शरीर ) और चेतन