पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/१८

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सम्बद्ध हो कर निरतर उसी प्रकार वेग से भ्रमण करते रहते है जिस प्रकार सौरजगत् मे ग्रह उपग्रह भ्रमण करते हैं। इसी का नाम है भवचक्र। परमाणु के भीतर भी वही व्यापार हो रहा है जो ब्रह्मांड के भीतर। 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' वाली बात समझिए। जो गतिशक्ति आकर्षण और अपसारण के रूप मे छोटे से द्रव्यखड के परमाणुओ को परस्पर सम्बद्ध रख कर भ्रमण कराती है वहीं समस्त जगत् मे नक्षत्रो, ग्रहों और उपग्रहो को अपने पथ पर रख कर चक्कर खिलाती है। शक्ति की इसी दोमुही चाल से जगत् की स्थिति है। यदि शक्ति अपने एक ही रूप में कार्य करती तो जगत् की यह अनेकरूपता न रहती, या यों कहिये कि जगत् ही न रहता। यदि आकर्षणक्रिया ही स्वतंत्र रूप से चलती, उसे बाधा देनेवालो अपसारिणी क्रिया न होती तो अखिल विश्व के समस्त परमाणु खिच कर एक केद्र पर मिल जाते और विश्व एक ऐसा अचल, जड़ और ठोस गोला होता जिस पर न नाना प्रकार के पदार्थ होते, न जीवजतु और पेड़ पौधे होते और न कोई व्यापार होता। इसी प्रकार यदि केवल अपसारणी


वैशेषिकों को 'पीलुपाक' नाम का विलक्षण मत ग्रहण करना पड़ा। इस मत के अनुसार घड़ा आग में पड़ कर लाल इस प्रकार होता है कि अग्नि के तेज से घडे के परमाणु अलग अलग हो जाते हैं, फिर लाल होकर मिल जाते है । घड़े का यह बिगड़ना और बनना इतन सूक्ष्म काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता। न्याय वाले परमाणुओ के बीच अन्तर मान कर ऐसी कल्पना नहीं करते।