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लगाया। जर्मनी के कार्ड जिजिनवावर ने तारतम्यिक शरीर विज्ञान पर डारविन के विकासवाद के नियमो को घटा कर इस शास्त्र की मर्यादा बहुत बढ़ा दी। उसके पिछले ग्रंथ "मेरुदंड जीवो की तारतम्यिक अंगविच्छेद परीक्षा" के आधार पर ही मनुष्य मे मेरुदड जीवों के सब लक्षण निर्धारित किए गए।

शरीराणु-विज्ञान का प्रादुर्भाव एक दूसरी ही-रीति से हुआ। सन् १८०२ मे एक फरासीसी बैज्ञानिक ने मनुष्य के अवयवो के सूक्ष्म विधान का खुर्दबीन द्वारा विश्लेषण करने का प्रयत्न किया। उसने शरीर के सूक्ष्म तंतुओं के संबंध को देखना चाहा पर उसे कुछ सफलता न हुई क्योकि वह ससस्त जतुओ के उस एक समवाय कारण से अनभिज्ञ था जिसका पता पीछे से चला। सन् १८३८ मे श्लेडेन (Schleiden ) ने उद्गिद् सृष्टि मे समवाय रूप घटक का पता पाया जो पीछे से जतुओ मे भी देखा गया। इस प्रकार घटकवाद की स्थापना हुई। सन् १८६० मे कालिकर (Kollikar) और विरशो (Vichow) ने घटक तथा तंतु जाल संबंधी सिद्धांतो को मनुष्य के एक एक अवयव पर घटाया। इससे यह भली भॉति सिद्ध हो गया कि मनुष्य तथा और सब जीवों का शरीरतंतुजाल अत्यंत सूक्ष्म (खुर्दबीन से भी जल्दी न दिखाई देनेवाले ) घदको से बना है। ये ही घटक वे स्वतः क्रियमाण जीव है जो करोड़ो की संख्या मे व्यवस्थापूर्वक बस कर शरीररूपी विशाल राज्य की योजना करते हैं। इन्हींकी बस्ती या समवाय को शरीर कहते हैं। ये सब के सब