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तीसरा प्रकरण।

हमारा जीवन।

उन्नीसवी शताब्दी मे ही मनुष्यजीवनसंबंधी ज्ञान को वैज्ञानिक रूप प्राप्त हुआ है। सजीव व्यापारो का अन्वेषण करनेवाली विद्या को शैरीरव्यापारविज्ञान * कहते हैं। यह विद्या आजकल अत्यंत उन्नत अवस्था को पहुँच गई है। प्राचीन काल मे ही लोगो का ध्यान सजीव व्यापारो की ओर गया था। वे जीवो की इच्छानुसार हिलना डोलना, हृदय की धड़कना, सॉस खीचना, बोलना आदि देखकर इन व्यापारो का कारण जानना चाहते थे। अत्यत प्राचीन काल मे ना सजीव पदार्थों के हिलने डोलने मे और निर्जीव पदार्थों के हिलने डोलने मे विभेद करना सहज नही था। नदियो का बहना, हवा का चलना, लपट का भभकना आदि जंतुओ के चलने फिरने के समान ही जान पड़ते थे। अत इन निर्जीव पदार्थों मे भी उस काल के लोगो को एक स्वतंत्र जीव मानना पडता था। पर पीछे जीवन के संबध मे जिज्ञासा आरंभ हुई।


  • अगविच्छेदशास्त्र केवल भीतरी अवयवो के स्थान और उनकी बनावट बतलाता है पर शरीरव्यापारविज्ञान उनके व्यापारो और कार्यो की व्यवस्था प्रकट करता है। अगविच्छेदशास्त्र केवल यही बतलावेगा कि अमुक अवयव शरीर के अमुक स्थान पर होता है और इस आकार का होता है, वह यह न बतलावेगा कि वह अवयव क्या काम करता है।