अत. गर्भ का सारा विकार या वृद्धि अंतर्मुख अंगों का प्रस्तार मात्र है। इसी भ्रांत विचार का नाम ‘पूर्वकृत' या 'युगपत्' सिद्धांत है। सन १७५९ मे उल्फ नामक एक नवयुवक डाक्टर ने अनेक श्रमसाध्य और कठिन परीक्षाओ के उपरांत इस सिद्धांत का पूर्णरूप से खंडन किया। अडे को यदि हम देखे तो उसके भीतर बच्चे या उसके अंगो का कोई चिन्ह पहले नहीं रहता, केवल एक छोटा चक्र जरदी के सिरे पर होता है। यह बीजचक्र धीरे धीरे वर्तुलाकार हो जाता और फिर फूट कर चार झिल्लियो के रूप में हो जाता है। ये ही चार झिल्लियाँ शरीर के चार प्रधान विभागो के मूल रूप है। चार विभाग यो विधान ये है--ऊपर संवेदनविधान जिससे ससस्त संवेदनात्मक और चेतन व्यापार होते है, नीचे पेशी विधान, फिर नाड़ीघट * ( हृदय नाड़ी आदि ) विधान, और अत्रविधान। इससे प्रकट है कि गर्भविकाश पूरे अंगो का प्रस्तार मात्र नहीं है बल्कि नवीन रचनाओ का क्रम है। इस सिद्धांत का नाम "नवविधान"वाद है। ५० वर्ष तक
सुभूति गौतम कहते है धड जिससे सब अग सन्निबद्ध रहते है, पर धन्वंतरि जी कहते है कि इनमे से किसी का मत ठीक नही, बच्चो के सब अग एक साथ ही पैदा हो जाते है, बॉस के कल्ले या आम के फल के समान ---
"सवीगप्रत्यगानि युगपत्संभवतीत्याह धन्वतरि,
गर्भस्य सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते, वैशाकुरवच्चूतफलवच्च।।"
---सुश्रुत, शरीरस्थान।
- जिससे रक्तसञ्चार होता है और जिसके अतर्गत रक्तवाहिनी नलियाँ और हृदय हैं।