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भीतर जो बहुत से सूक्ष्म संपुट दिखाई पड़ते हैं वे ही गर्भाड है। १८२७ मे वेयर ने पहले पहल सिद्ध किया कि वास्तविक गर्भाड इन संपुटो के भीतर बंद रहते है और बहुत छोटे-एक इंच के १२०वे भाग के बराबर-होते है और बिदु के समान दिखाई देते है। उसने दिखलाया कि स्तन्य जीवो के इस सूक्ष्म गर्भाड से पहले एक बीजवर्तुल या कलल * उत्पन्न होता है। यह बीजवर्तुल एक खोखला गोला होता है जिसके भीतर एक प्रकार का रस भरा रहता है। इस गोले का जो झिल्लीदार आवरण होता है उसे बीजकला कहते है। वेयर के इस बीजकला सिद्धांत की स्थापना के दस वर्ष पीछे सन् १८३८ मे जब घटकवाद स्वीकृत हुआ तब अनेक प्रकार के नए प्रश्न उठे। गर्भाड तथा बीजकला का उन घटको और तंतुओ से क्या संबंध है जिनसे मनुष्य का पूर्ण शरीर बना है। इस प्रश्न का ठीक ठीक उत्तर रेमक और कालिकर नामक मूलर के दो शिष्यो ने दिया। उन्होने दिखलाया कि गर्भाड पहले एक सूक्ष्म घटक मात्र रहता है। गर्भित होने पर उत्तरोत्तर विभाग द्वारा उसी से जो अनेक बीजवर्तुल या कलल होते जाते है वे भी शुद्ध घटक ही है। उनके शहतूत की तरह के गुच्छे से पहले कलाओ या झिल्लियो की रचना होती है, फिर विभेद या कार्यविभाग-क्रम द्वारा भिन्न भिन्न अवयवो की सृष्टि होती है। कालिकर ने यह भी स्पष्ट किया कि नरजीवो


  • हारीत ने लिखा है कि प्रथम दिन शुक्र शोणित के सयोग से जिस सूक्ष्म पिंड की सृष्टि होती है उसे कलल कहते है।