ऐसे समूह के रूप मे जो तंतुओं द्वारा संबंद्ध वा एकीकृत नहीं होता, रहता है। समष्टिजीव का शरीर आरंभ में तो एकघटक रहता है पर पीछे अनेक ऐसे घटको का हो जाता है जो मिल कर जाल के रूप मे गुछ जाते है।
( २ ) अतः इन दोनो जीववर्गों के प्रजनन और गर्भस्फुरण का क्रम भी अत्यंत भिन्न होता है। अणुजीवो की वृद्धि अमैथुनीय विधान से अर्थात् विभागपरंपरा * द्वारा होती है; उनमे गर्भकीटाणु और वीर्यकीटाणु नही होते। पर समष्टि जीवो मे पुरुष और स्त्री का भेद होता है। उनका प्रजनन मैथुनाविधान से अर्थात् गर्भकीटाणु से होता है जो शुक्रकीटाणु द्वारा गर्भित होता है।
( ३ ) अतः वास्तविक बीजकलाएँ और उनसे बने हुए तंतु केवल समष्टिजीवों में होते है, अणुजीवो मे नही।
( ४ ) सारे समष्टिजीवो के गर्भकाल मे पहले से ही दो कलाएँ (आवरण या झिल्लियॉ) प्रकट होती है। ऊपरी कला से बाहरी त्वक् और संवेदनसूत्रो का विधान होता है, भीतरी कला से अंत्र तथा और और अवयव उत्पन्न होते है।
( ५ )गर्भाशय मे स्थित बीज को, जो गर्भित रजःकीटाणु
- ऐस जीवो की वशवृद्धि विभाग द्वारा इस प्रकार होती है। एक अणुजाव जब बढ़ते बढ़ते बहुत बढ़ जाता है तब उसकी गुठली के दो विभाग ही जाते हैं। क्रमशः उस जीव का शरीर मध्य भाग से पतला पड़ने लगता है और अंत मे उस जीव के दो विभाग हो जाते है।