पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४५ )


से पहले पहल निकलता है और दो कलाओं के रूप मे ही होता है, द्विकलघट कह सकते हैं। इसका आकार कटोरे का सा होता है। आरंभ मे इसके भीतर केवल वह खोखला स्थान होता है जिसे आदिम जठराशय कह सकते है और बाहर की और एक छिद्र होता है जिसे आदिम मुख कह सकते है। समष्टि जीवो के शरीर के ये ही सब से पहले उत्पन्न होने वाले अवयव है। ऊपर लिखी दोनो कलाएँ या झिल्लियाँ ही आदि ततुजाल हैं, उन्ही से पीछे और सब अवयवो की उत्पत्ति होती है।

( ६ ) सारे समष्टि जीवो के गर्भविधान मे इस द्विकलघट को पाकर मैने सिद्धांत निकाला कि सारे समष्टि जीव आदि मे मूल द्विकलात्मक जीवा से उत्पन्न हुए है और मूल जीवो का यह रूप अब तक बड़े जीवो की गर्भावस्था मे पितृपरंपरा के धर्मानुसार पाया जाता है।

( ७ ) वर्गोत्पत्तिविषयक इस सिद्धांत की पुष्टि इस बात से पूर्णतया होती है कि अब भी ऐसे द्विकलात्मक जीव पाए जाते है। यही तक नही है, ऐसे भी जीव ( स्पंज, मूँगा आदि सामुद्रिक जीव ) मिलते है जिनकी बनावट इन द्विकलात्मक जीवो से थोड़ी हीं उन्नत होती है।

( ८ ) द्विकलघट से घटकजाल के रूप मे संयोजित होकर बढ़नेवाले समष्टि जीवो के भी दो प्रधान भेद है--एक तो आदिम रूप के जिनके शरीर मे कोई आशय, मलद्वार, और रक्त नही होता (स्पंज आदि समुद्र के जीव इसी प्रकार के है), दूसरे उनसे पीछे के और उन्नत शरीरवाले जिनके शरीर मे आशय, मलद्वार और रक्त होता है। इन्ही