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पाँचवाँ प्रकरण।

मनुष्य की उत्पत्ति का इतिहास।

जीवविज्ञान की सब शाखाओ मे जीववर्गोत्पत्ति विद्या सब से पीछे निकली है। इसका प्रादुर्भाव भी गर्भविकाश विद्या के पीछे हुआ है और इसके मार्ग मे कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक पड़ी है। गर्भविकाश विद्या का उद्देश्य उन विधानो का परिज्ञान प्राप्त करना है जिनके अनुसार उद्भिद् या जन्तु का शरीर मूलाड से क्रमश उत्पन्न होता है, पर जीववर्गोंत्पत्ति विद्या इस बात का निर्णय करती है कि जीवो के भिन्न भिन्न वर्ग किस प्रकार उत्पन्न हुए।

गर्भविकाश विद्या मे तो बहुत सी बातो को प्रत्यक्ष देखने का सुवीता है, क्योंकि वे बाते हमारे सामने बराबर होती रहती है। गर्भाड से स्फुरित होने पर भ्रूण मे एक एक दिन और एक एक घड़ी मे उत्तरोत्तर क्या क्या परिवर्तन होते हैं यह देखा जा सकता है। पर जीववर्गोत्पत्ति विद्या का विषय परोक्ष होने के कारण अधिक कठिन है। उन क्रियाविधान के धीरे धीरे होने मे जिनके द्वारा उद्भिदो और प्राणियो के नए नए वर्गो की क्रमश सृष्टि होती है लाखो वर्ष लगते है। उनके बहुत ही थोड़े अंश का प्रत्यक्ष हो सकता है। उन क्रियाविधानो का परिज्ञान हमे अनुमान और चिंतन द्वारा तथा गर्भविधान और निःशेष जीवो के भूगर्भस्थित अस्थिपंजरो की परीक्षा द्वारा ही विशेषतः होता है। प्राणियो के