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नितांत भ्रांतिमूलक होने पर भी तब तक सर्वमान्य रहा जब तक डारविन का समय आ कर नहीं उपस्थित हुआ।

पर विविध योनियो को स्थिर और अपरिणामशील तथा उनकी सृष्टि को दैवी विधान मानने से विचारशील पुरुषो को संतोष नहीं हुआ। कुछ लोग सृष्टि-विधान के प्राकृतिक हेतुओ के निरूपण की चेष्टा मे लगे रहे। इनमे मुख्य था जर्मनी का प्रसिद्ध कवि और तत्ववेत्ता गेटे जिसने भिन्न भिन्न जीव के शरीरो की परीक्षा करके समस्त जीवधारियों के परस्पर घनिष्ठ सबंध और एक मृल से उत्पत्ति का निश्चय किया। सन् १७९० मे उसने सब प्रकार के पौधो को एक आदिम पत्ते से निकला हुआ बतलाया। मेरुदंड अर कपाल की परीक्षा द्वारा उसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मनुष्य से लेकर समस्त मेरुदंड जीवो के कपाल एक विशेष क्रम से बैठाई हुई हड्डियो के समूह से बने है और ये हड्डियाँ मेरुदंड या रीढ़ के विकार या रूपांतर मात्र है। इस सूक्ष्म पंजरपरीक्षा के आधार पर उसे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि सारे जीवो की उत्पत्ति एक ही मूल से है। उसने दिखलाया कि मनुष्य का पंजर भी उसी ढॉचे पर बना है जिस ढॉचे पर और रीढ़वाले जीव का। उस मूल ढॉचे में पीछे से परिवर्तन या विशेषताएँ उत्पन्न करनेवाली दो प्रधान विधायिनी शक्तियाँ हैं----एक तो शरीर के भीतर की अतर्मुख शक्ति जो केंद्र की ओर ले जाती है और नियति या विशिष्टता की ओर प्रवृत्त करती है और दूसरी बहिर्मुख शक्ति जो केंद्र के बाहर ले जाती है और रूपांतर अर्थात्