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विशेषता रखनेवाले जंतुओ को चुन कर उनसे एक नए प्रकार की नसले पैदा करता है उसी प्रकार प्रकृति भी रक्षा के लिए ऐसे जीवो को चुन लेती है जिनमे स्थिति के अनुकूल अंग आदि मे विशेषता आ जाती है। इस प्रकार उसने प्राकृतिक "ग्रहण सिद्धांत" की स्थापना की। *


  • इस सिद्धात का अभिप्राय यह है कि जिस स्थिति मे जो जीव पड़ जाते है उस स्थिति के अनुरूप यदि वे अपने को बना सकते हैं तो रह सकते है अन्यथा नही, अतः जितने जीवो के अग आदि स्थिति के अनुकूल बन जाते है उतने रह जाते है, जिनके नही बनते वे नष्ट हो जाते है। अर्थात् प्रकृति इस प्रकार चुने हुए जीवो को रक्षा के लिए ग्रहण करती है। स्थिति के अनुकूल बनने की क्रिया के कारण ही जीवो के अगो मे भिन्नता आती है और भिन्न भिन्न रूप के जीव उत्पन्न होते हैं। यह प्राकृतिक नियम है कि स्थिति परिवर्तन के अनुरूप किसी वर्ग के कुछ जीवो मे यदि औरो से कोई विशेषता उत्पन्न हो जाती है तो वह विशेषता पुश्त दर पुश्त चली चलती है। इस रीति से उस वर्ग मे एक नए ढॉचे के जतु का विकाश हो जाता है। जंतुव्यवसायी प्राय: ऐसा करते है कि किसी वर्ग के कुछ जतुओ मे कोई विलक्षणता देख कर उनको चुन लेते है, और उन्ही के जोडे लगाते है। फिर उन जोडो से जो जतु उत्पन्न होते है उनमे से भी उन्हे चुनते है जिनसे वह विलक्षणता अधिक होती है। इस रीति से वे कुछ पुश्तो के पीछे एक नए ढाँचे का जतु ही उत्पन्न कर लेते है, जैसे जगली नीले ( गोले ) कबूतर से अनेक रंग और ढग के पालतू कबूतर बनाए गए है। यह तो हुआ मनुष्य