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जीवविज्ञान में डारविन ने इस बात पर बहुत जोर दिया कि जंतुओं और उद्भिदों की उत्पत्ति-परंपरा स्थिर कर दी जाय। किस प्रकार एक प्रकार के जीवों से उत्तरोत्तर अनेक प्रकार के जीव की सृष्टि होती गई इसका क्रम निर्धारित कर दिया जाय। तदनुसार सन् १८६६ मे मैंने इस विषय पर एक पुस्तक लिख कर इस बात का प्रयत्न किया। पहले एक विशिष्ट रूप के जीव को लेकर मैंने यह दिखलाया कि किस प्रकार गर्भावस्था मे क्रमशः उसके विविध अंगों का स्फुरण होता है फिर यह निर्धारित किया कि किस क्रम से सजीवसृष्टि मे उत्तरोत्तर भिन्न भिन्न रूपों ( योनियों ) का विधान हुआ है। विकाश से पहले गर्भ का उत्तरोत्तर स्फुरण ही ससुझा जाता था। पर


का चुनाव का "कृत्रिम ग्रहण"। इसी प्रकार का चुनाव या ग्रहण प्रकृति भी करती है जिसे "प्राकृतिक ग्रहण" कहते हैं। दोनो मे अंतर यह है कि मनुष्य अपने लाभ के विचार से जंतुओ को चुनता है पर प्रकृति यह चुनाव जीवों के लाम के लिए होता है। प्रति उन्हीं जीवों को रखने के लिए चुनती या रहने देती है जिनमें स्थितिपरिवर्तन के अनुकूल अंग आदि हो जाते हैं। हेल को लीजिए। उसके गर्म की अवस्थाओ का अन्वीक्षण करने से पता चलता है कि वह स्थलजारी जंतुओं में उत्पन्न हुआ है, उनके पूर्वज पानी के किनारे दलदलो के पास रहते थे फिर क्रमशः ऐसी अवस्था आती गई जिससे उनका जमीन पर रहना कठिन होता गया और स्थितिपरिवर्तन के अनुसार उनके अवयवों मे फेरफार होता गया, यहाँ तक कि कुछ काल पीछे उनकी संतति में जल में रहने के उपयुक्त अवयवों का विधान हो