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प्रकार गर्भविज्ञान और शरीरविज्ञान के आधार पर जो जीवोत्पत्ति-परंपरा ( अर्थात् किस प्रकार के जीव से किस प्रकार के दूसरे जीव उत्पन्न हुए ) निर्धारित हुई थी उसका सामंजस्य भूगर्भ मे मिली हुई अप्राप्य जीवो की ठठरियो से पूरा पूरा हो गया। संक्षेप मे यह परंपरा इस प्रकार है---

सब से पहले आदिम मत्स्य, फिर फेफड़ेवाल मत्स्य*, फिर जलस्थलचारी जंतु (मेढक आदि), सरीसृप, और स्तन्य जतु। स्तन्य जीवो मे अंडजस्तन्य सब से पहले हुए, फिर उन्ही से क्रमशः अजरायुज पिडज ( थैलीवाले ) और जरायुज जंतु उत्पन्न हुए। इन जरायुजो से ही किपुरुष निकले जिनमे पहले बंदर फिर वनमानुस उत्पन्न हुए। पतली नाकवाले वनमानुसो मे पहले पूँछवाले कुक्कुराकार बनमानुस हुए, फिर उनसे बिना पूँछवाले नराकार वनसनुस हुए। इन्ही नराकार वनमानुसो की किसी शाखा से वनमानुसो के से गूंगे मनुष्य उत्पन्न हुए और उनसे फिर बोलनेवाले मनुष्यो की उत्पत्ति हुई।

रीढ़वाले जंतुओं के उत्पत्तिक्रम की श्रृंखला तो इस प्रकार मिल जाती है पर उनसे पहले के बिना रीढ़वाले जंतुओ की श्रृंखला मिलाना कठिन है। भूगर्भ के भीतर उनका कोई चिह्न नही मिल सकता, इससे प्राग्जंतुविज्ञान कुछ सहायता नही


  • इस प्रकार की मछलियाँ अब बहुत कम मिलती है; आस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अमेरिका में दो तीन जातियाँ पाई जाती है। ये मछलियो और मेढक आदि जलस्थलचारी जतुओं के बीच में हैं।

भूगर्भ के भीतर प्राचीन जतुओं के चिह्रो की खोज करनेवाली विद्या।