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दे सकता। पर तारतम्यिक शरीर-विज्ञान और गर्भ-विज्ञान आदि के प्रमाणो पर हम इस शृंखला को मूल तक ले जा सकते हैं। हम यह दिखला सकते हैं कि मनुष्य का भ्रूण भी दूसरे रीढ़वाले जंतुओ के भ्रूण के समान कुछ दिनो तक सूत्रदड अवस्था मे (जब कि रीढ़ के स्थान मे सूत की तरह लचीली शलाका होती है) रहता है। अंत जीव सृष्टि के नियमानुसार * हम निश्चित कर सकते हैं कि पूर्वकाल के जीव सूत्रदंड और द्विकलघट रूप के रहे है। सब से अधिक ध्यान देने की बात तो यह है कि मनुष्य का भ्रूण भी और प्राणियो के भ्रूण के समान आदि मे एक घटक के रूप का ही होता है। यह एक घटक पिड इस बात का पता देता है कि जीवसृष्टि के आदिम काल मे एक घटक जीव ही रहे होगे।

हमारे तत्त्वाद्वैतवाद की स्थापना के लिए बस इतना ही देखना काफी है कि मनुष्ययोनि वनमानुसयोनि से निकली है जो क्षुद्र मेरुदंड जीवो की परंपरा से विकसित हुई है। हाल


  • यह नियम कि गर्भ के बढ़ने का क्रम और एक जीव से दूसरे जीव के उत्पन्न या विकासित होने का क्रम एक ही है। गर्भ मे भ्रूण जिस एक मूलरूप से क्रमशः जिन दूसरे रूप मे होता हुआ कुछ महीनों मे एक विशेष रूप का होकर तैयार हो जाता है सृष्टि मे भी उसी एक मूल रूप से उन्हीं दूसरे रूपों में होती हुई अनेक योनियाँ क्रमशः उत्पन्न हुई है। अतर इतना ही है कि मछली से मनुष्य होने में तो करोड़ों वर्ष लगे होंगे पर मत्स्याकार गर्भपिंड से नराकार शिशु होने मे कुछ महीने ही लगते हैं।