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छठाँ प्रकरण।

आत्मा का स्वरूप।

'आत्मा की क्रिया' या मानसिक व्यापार * से जिन व्यापारो को ग्रहण होता है वे जिस प्रकार अत्यंत कौतूहलप्रद और महत्व के है उसी प्रकार अत्यंत जटिल और दुर्बोध है। प्रकृति का परिज्ञान आत्मा के व्यापार का ही अंग है और इस व्यापार की यथार्थता पर ही जंतुविज्ञान, सष्टिविज्ञान आदि अवलंबित हैं इस लिए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान ( आत्मा के व्यापारी को बोध करानेवाला शास्त्र ) और सब विज्ञानों का आधारस्वरूप है या यो कहिए कि वह दर्शन, शरीरविज्ञान, जंतुविज्ञान, अदि का अंग ही है।

मनोविज्ञान के सिद्धांतो के वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादन मे बड़ी भारी अड़चन यह पड़ती है वह बिना शरीर के भीतरी अवयवो, विशेष कर मस्तिष्क, का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त किए ठीक ठीक हो नही सकता। पर अधिकांश मनोविज्ञानी आत्मा के व्यापारो के विधायक अवयवो का बहुत कम परिज्ञान रखते


  • यद्यपि न्याय और वैशेषिक ने आत्मा के जो लक्षण कहे हैं वे मानसिक व्यापारों से भिन्न नहीं जान पड़ते पर शेष दर्शनो के समान उन्होंने भी अतःकरण या मन से आत्मा को भिन्न माना है। हैकल ने आधिभौतिक दृष्टि से अतःकरण को ही आत्मा माना है।