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संबंध मे भी कही जा सकती है क्यों कि वे ऊपर कहे हुए क्षुद्र मनोव्यापारों ही से क्रमशः स्फुरित हुए हैं। उनमे जो पूर्णता आई है वह अधिक मात्रा मे समन्वय होने के कारण उन व्यापारो की विशेष संगति और योजना के कारण जो पहले पृथक पृथक् थे। सारांश यह कि क्षुद्रकोटि के मनोव्यापारो और उन्नत कोटि के मनोव्यापारो मे--मनुष्यबुद्धि और पशुबुद्धि मे-केवल न्यूनाधिक का भेद है, वस्तुभेद नही।

प्रत्येक विज्ञान का पहला काम यह है कि जिस वस्तु के सबंध में उसे अन्वेषण करना हो उसकी स्पष्ट परिभाषा या व्याख्या कर ले। पर मनोविज्ञान के सबंध मे यह प्रारंभिक कार्य अत्यंत कठिन है। सब से विलक्षण बात यह है कि मनोविज्ञान के संबंध में आज तक नए पुराने दार्शनिको ने जो मत प्रकट किए हैं उनका परस्पर विरोध देख कर बुद्धि चकरा जाती है। आत्मा क्या है? इद्रियानुभव और भावना में क्या अंतर है? मन मे कोई बात किस प्रकार उपस्थित होती है? बुद्धि और विचारो में क्या अंतर है। मनोवेगो ( राग, द्वेष, क्रोध आदि ) का वास्तविक रूप क्या है? अंतःकरण की इन समस्त वृत्तियो का शरीर से क्या संबंध है? इन अनेक प्रश्न के तथा इसी प्रकार के और प्रश्नो के जो उत्तर दार्शनिको ने दिए हैं वे परस्पर विरुद्ध हैं। यही नही, एक ही वैज्ञानिक वा दार्शनिक ने पहले कुछ और विचार प्रकट किया, पीछे और। इस प्रकार मनोविज्ञान भानमती का पिटारा बन गया है। जितनी गड़बड़ी इस विज्ञान मे दिखाई देती है उतनी और किसी मे नहीं।