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कांश मनोविज्ञानी केवल इसी आत्म-निश्चय या अहंकारवृत्ति का अनुसरण करके चले हैं, जैसे डेकोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि "मैं सोचता हूँ इस लिए मैं हूँ।" अतः पहले इस आत्मनिरीक्षण प्रणाली पर कुछ विचार करके तब हस दूसरी (वाह्य निरीक्षण प्रणाली) की व्याख्या करेगे।

इन दो तीन हजार वर्षों के बीच आत्मा के संबंध मे जितने सिद्धांत उपस्थित किए गए है सब इसी अंतर्मुख प्रणाली के अनुसार स्वानुभूति या आत्म-निरीक्षण के आधार पर। अपनी आत्मा मे जिस प्रकार के अनुभव हुए उनकी संगति और आलोचना द्वारा किए हुए निश्चय ही दार्शनिक प्रकट करते रहे है।

बात यह है कि मनोविज्ञान के एक प्रधान अंग का विचार, विशेष कर चेतना के धर्म आदि का निरूपण, केवल इसी एक


पडेगी और उसी क्रिया का तुम निरीक्षण किया चाहते हो। यदि तुम क्रिया रोकते हो तो निरीक्षण करने के लिए कोई वस्तु ही नहीं रह जाती"। यह बाधा तो आधिभौतिक मनोविज्ञानक्षेत्र की हुई जिसमे जैसे अतःकरण की ओर सब वृत्तियों का निरूपण होता है वैसेही चेतना का भी। भारतीय दार्शनिकों ने भी मन की युगपत् क्रिया असभव बतलाई है, अर्थात् मन एक ही समय एक साथ दो व्यापारो मे प्रवृत्त नही हो सकता, पर उन्होंने सब व्यापारो के द्रष्टा आत्मा को मन या अत:करण से मिन्न माना है। अध्यात्म या पराविद्या के क्षेत्र मे भी आत्मबोध के संबध मे इस कठिनाई का सामना पढ़ा है। चैतन्य वा आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा वा विषयी है अतः अपने ज्ञान के लिए उसे ज्ञेय, दृश्य वा विषय होना पड़ेगा। पर न विषयी विषय हो सकता है, न विषय