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प्रणाली से हो सकता है। मस्तिष्क की यह वृत्ति (चेतना ) विशेष रूप की है। इसके कारण जितने दार्शनिक भ्रम हुए है उतने और किसी वृत्ति के कारण नही। मन की इस स्वनिरीक्षण क्रिया को ही मनोविज्ञान के निरूपण का एक मात्र साधन समझना, जैसा कि बहुतेरे दार्शनिको ने किया है, बड़ी भारी भूल है। मन के बहुत से व्यापारो का, जैसे इंद्रियो और वाणी की क्रिया आदि का, निरूपण उसी रीति से हो सकता है जिस रीति से शरीर के और व्यापारो का, अर्थात् पहले तो भीतरी अवयवो की सूक्ष्म विश्लेषणपरीक्षा से और फिर उनके आश्रय से होनेवाले व्यापारो के जीवविज्ञानानुकूल निरीक्षण से। अतः बिना इस प्रकार के बाह्य निरीक्षण के केवल आत्म-निरीक्षण द्वारा निश्चित मनोव्यापार-संबंधिनी बाते पक्की नही


विषयी। शंकर स्वामी अपने भाष्य में कहते है--युष्मदस्मत्प्रत्यय- गोचरयो विषयविषयिनो स्तम:प्रकाशवरुद्धस्वभावयोरित्तरेतर भावा- नुपपत्तौ सिद्धायाम् .."।

हर्बर्ट स्पेसर ने भी यही कहा है---A thing cannot at the same instant be both subject and object of thought, and yet the Substance of Mind must be this before it can beknown

शंकराचार्य ने तो यह कह कर उक्त बाधा दूर की कि चैतन्य वा आत्मा 'कूटस्थनित्यचैतन्यज्योति' है, वह ज्ञानस्वरूप है उसे ज्ञेय होने की आवश्वकता नहीं। पर हर्बर्ट स्पेसर आदि पश्चिमी तत्व- वेत्ताओं ने इसी विरोध को लेकर आत्मा, परमात्मा आदि को अज्ञेय ठहराया और सशय की स्थिति में रहना ही ठीक समझा।