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का भी बल न पड़े, अर्थात् व्यापारो का निरीक्षण जहाँ तक हो सके प्रत्यक्षानुभव के रूप मे हो और जो नियम निरूपित किए जायँ वे जहाँ तक हो सके ठीक ठीक और स्पष्ट हो जैसे कि गणित के होते है। पर इस प्रकार का नपा तुला ठीक ठीक निरूपण कुछ थोड़े से शास्त्रो मे ही संभव है, विशेषत् उन विद्याओ मे जिनमे परिमेय ( गिनती या माप के योग्य ) परिमाण का विचार होता है, जैसे गणित मे तथा ज्येतिष, कलाविज्ञान, भौतिकविज्ञान, और रसायनशास्त्र के बहुत से अशो से। इसीसे ये सब विद्याएँ "ठीक नपी तुली विद्याएँ" कहलाती है। पर समस्त भौतिक विद्याओं को बिल्कुल ठीक और नपी तुली समझ कर उन्हे इतिहास, तर्क, आचारशास्त्र आदि से सर्वथा भिन्न कोटि मे रखना भूल है। भौतिक विज्ञान को बहुत सा अंश ऐसा है जिसकी बातो को हम इतिहास की बातो से अधिक ठीक और नपी तुली नही कह सकते। यही प्राणिविज्ञान और उससे सवद्ध मनोविज्ञान के सबंध मे भी कहा जा सकता है। जब कि मनोविज्ञान शरीरविज्ञान की ही एक अंग है तब उसका निरूपण भी उसी प्रणाली से होना चाहिए जिस प्रणाली से शरीरविज्ञान का होता है । अस्तु, मनोविज्ञान मे पहले तो हमे प्रत्यक्षानुभव प्रणाली का अनुसरण कर के जहाँ तक हो सके इंद्रिय, संवेदनसूत्र, मस्तिष्क आदि की क्रियाओं का निरीक्षण और परीक्षा करनी चाहिए, उसके पीछे फिर मन के व्यापारो का आत्मनिरीक्षण करके उनके नियमो को तर्क द्वारा स्थिर करना चाहिए। पर यह समझ रखना चाहिए कि इस प्रकार के