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भूत विशेषत्व की ओर प्रवृत्त होता है, किस प्रकार प्रकृति की साम्यावस्था भग होती है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। यह एक समस्या रह सी जाती है। रहने दीजिए, यह औरों के काम की है।

विज्ञान की दृष्टि से जगत् की उत्पत्ति इस प्रकार निरूपित हुई है। अपनी साम्यावस्था भंग होने के पीछे द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म नीहारिका के रूप में बहुत दूर तक फैला रहा। संयोजक शक्ति द्वारा द्रव्य-विस्तार के अणु खिंच कर परस्पर मिलने लगे जिससे संचित वियोजक या अपसारिणी शक्ति छूट पड़ी और दो रूपो में व्यक्त हो कर कार्य्य करने लगी——अणुचालक और पिण्डचालक। अणुचालक गति द्वारा अणुओ मे एक प्रकार का स्पंदन या दोलन सा होने लगा। यह गति ताप और प्रकाश के रूप में व्यक्त हो कर फैली। पिण्डचालक गति द्वारा अणुओं से बने हुए पिंड लट्टू की तरह घूमते हुए गोल परिधि या मंडल बाँध कर चक्कर लगाने लगे। इसी प्रकार नक्षत्रों, ग्रहों, उपग्रहों आदि की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। सौरजगत् की उत्पत्ति का विधान इसी रूप मे निश्चित किया गया है। इस विधान को अब अपने सौर जगत् पर घटा कर देखिए कि नीहारिकामंडल से सूर्य और नाना ग्रहों उपग्रहों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई।

ज्योतिष्क नीहारिका-मंडल पहले अत्यंत वेग से घूमता हुआ गोला था। अणुओं के केंद्र की ओर आकर्षित होने से वह क्रमशः भीतर की और सिमट कर जमने लगा जिससे उसके किनारे घूमते हुए नीहारिका के वलय या छल्ले रह गए।