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चेष्टा करने पर भी उससे मुक्त नहीं हो सका हूँ। अतः मै जोर के साथ कहता हूँ कि जिसे बुंट ने अपनी युवावस्था का 'अविचार' कहा है वही सच्चा विचार है, वही सच्चा ज्ञान है। उस सच्चे विचार का समर्थन बुड्ढे दार्शनिक बुंट के मत के विरुद्ध भै बराबर करता रहूँगा।

बुंट, कांट, विरशो, रेमंड, बेयर इत्यादि का इस प्रकार अपने सिद्धांतों को बदलना ध्यान देने योग्य है। युवावस्था मे तो ये योग्य तत्त्ववेत्ता जीवविज्ञान के संपूर्ण क्षेत्र मे अत्यत विस्तृत अन्वेषण करते रहे और सब तत्वों की एक मूल प्रकृति ढूंढ़ने के प्रयत्न मे लगे रहे, पर पीछे बुढ़ापा आने पर उसे पूर्णतया साध्य न समझ इन्होने अपना उदेश्य ही परित्यक्त कर दिया—अपना रंग ही बदल दिया। इस परिवर्तन का कारण लोग यह कह सकते है कि युवावस्था मे बुद्धि के अपरिपक्व होने के कारण इन्होने सब बातो की ओर पूरा पूरा ध्यान नही दिया था, पीछे बुद्धि के पारिपक्व होने पर और अनुभव बढ़ने पर इन्हे अपना भ्रम मालूम हुआ और इन्होंने वास्तविक ज्ञान का मार्ग पाया। पर यह क्यो न कहा जाय कि युवावस्था मे अन्वेषण-श्रम की शक्ति अधिक रहती है, बुद्धि अधिक निर्मल और विचार अधिक स्वच्छ रहता है, पीछे बुढ़ाई आने पर जैस और सब शक्तियाँ शिथिल हो जाती है वैसे ही बुद्धि भी सठिया जाती है, जीर्ण हो जाती है। जो कुछ हो, पर वैज्ञानिको का यह सिद्धांत-पारिवर्तन मनोविज्ञान में मनन करने योग्य विषय है। इससे यह सूचित होता है कि जीवों के और व्यापारो के समान मनोव्यापार