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डेनामाइट का भड़कना इत्यादि। जीवधारियो मे जो प्रतिक्रिया होती है उन्नतिक्रम मे उसकी सात अवस्थाएँ देखी जाती है--

( १ ) जीवविधान की प्रारंभिक अवस्था के सब से क्षुद्र अणुजीवो मे वाह्य जगत् की उत्तेजना ( ताप, प्रकाश, विद्युत् आदि ) से कललरस मे केवल वही गति उत्पन्न होती है जिसे अंगवृद्धि और पोषण कहते है और जो समस्त जीवधारियो मे समान रूप से पाई जाती है। अधिकांश पौधों मे भी ऐसा ही होता है।

( २ ) डोलने फिरनेवाले अणुजीवो ( जैसे अस्थिराकृति अणुजीवो ) मे बाहर की उत्तेजना शरीरतल के प्रत्येक स्थान पर गति उत्पन्न करती है जिससे आकृति बदलती रहती है और स्थान भी बदलता है। यह आकृतिपरिवर्तन और हिलना डोलना शरीर मे से क्षण क्षण पर कभी इधर कभी उधर चारो और पादांकुर या शाखाएँ निकलते और सिमटते रहने से होता है। ये जीव यथार्थ मे कललरस के छीटे के रूप के ही होते है अतः इनमे जो पादांकुर निकलते और मिटते रहते है वे स्थिर अवयव नही कहे जा सकते। इसी प्रकार की उत्तेजन-ग्राहकता से लजालू आदि पौध तथा कई अनेकघटक ( अनेक घटको के योग से वने ) जीवो मे भी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। अनेकघटक जीवो मे उत्तेजना एक घटक से हो कर फिर दूसरे घटक मे जाती है क्योकि ये घटक एक प्रकार के तंतु से संबद्ध रहते हैं।

( ३ ) बहुत से उन्नत कोटि के अणुजीवों मे दो अत्यंत सादे अवयव या इंद्रियाँ देखी जाती हैं। एक स्पर्श की इंद्रिय,