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दूसरी गति की इंद्रिय। ये दोनो करण (इंद्रियां) भी कललरस के बाहर निकले हुए अंकुर मात्र हैं। स्पर्श की इंद्रिय पर जो उत्तेजना पड़ती है वह घटकस्थ मनोरस द्वारा गति की इंद्रिय तक पहुंचती है और उसे आकुंचित करती है। समुद्र मे पाए जाने वाले रोईदार अणुजीवो को लेकर यह व्यापार देखा जा सकता है। ये जीव अस्थिराकृति जीवो से कुछ बडे ( अर्थात ४०० इंच के लगभग ) और अनेक आकार के होते है---कोई प्याले के आकार के, कोई घंटी के आकार के, कोई जौ के आकार के। इनमे कुछ चर ( चलने फिरनेवाले ) होते है और कुछ अचर। इनके शरीर मे एक प्रकार के रोएँ होते है जिनके सहारे ये चलते फिरते और आहार संग्रह करते है। चट्टान आदि मे जमे हुए ( अचर ) इन अणुजीवो के खुले ऊपरी छोर ( वह छोर जो चट्टान आदि मे जमा नहीं रहता है, ऊपर की ओर होता है ) पर के रोयो को जरा सा भी छूएँ तो जमे हुए छोर पर जो सूत की सी डंठी होती है वह चट सुकड जाती है। इसे जीवो की सादी 'प्रतिक्रिया' कहते है।

( ४ )रोईवाले अणुजीवो के इस व्यापार के आगे फिर हमे मूँगे * आदि अनेकघटक जीवो का संवेदनसूत्रमय विधान मिलता है। इनका प्रत्येक संवेदनसूत्रात्मक और पेशीतंतुयुक्त घटक प्रतिक्रिया का एक एक करण है।


  • मूंगा बहुत से छोटे छोटे कृमियों का समूह है जो समुद्र के भीतर थूहर के पेड़ के आकार मे जमा हुआ मिलता है। देखने में यह पेड़ की तरह जान पडता है पर वास्तव मे क्षुद्र कृमियो की बस्ती है।