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( ७ ) रीढ़वाले जंतुओ मे त्रिघटकात्मक के स्थान पर चतुर्घटकात्मक करण पाया जाता है अर्थात् संवेदनग्राही संवेदनघटक और क्रियोत्पादक पेशीघटक के बीच में दो मिन्न भिन्न मनोघटक मिलते है। बाहरी उत्तेजना पहले संवेदनग्राही मनोघटेक मे जाती है, फिर संकल्पात्मकघटक मे पहुँचती है और अंत मे आकुंचनशील पेशीघटक मे जाकर गति उत्पन्न करती है। ऐसे अनेक चतुर्घटकात्मक करणों और नए नए मनोघटको के संयोग से मनुष्य तथा और उन्नत जीवो के जटिल मनोविज्ञानमयकोश या चेतन अंतःकरण की सृष्टि होती है।

ऊपर के विवरणो से स्पष्ट होगया होगा कि 'प्रतिक्रिया' ही मूल या आदिम मनोव्यापार है। एकघटक अणुजीवो मे 'प्रतिक्रिया' नामक सारा भौतिक व्यापार एक ही घटक के कललरस मे होता है। कललरस के विकार समग्र मनोरस मे जो एक सा व्यापार होता है उसी को हम ऐसे जीवो की घटकस्थ आत्मा कह सकते है। आगे चलकर उन्नत अवस्था मे इसी मनोरस के अनेक विभाग होकर इंद्रिय, अतःकरण आदि उत्पन्न होते हैं।

मनोव्यापार की दूसरी अवस्था यौगिक 'प्रतिक्रिया' है जो कर्कोटक * आदि समूहपिड में रहनेवाले समुद्री अणुजीवो


  • ये सूक्ष्म एकघटक समुद्री जतुं ककोड़े या अडी के फल के आकार का छत्ता या गोलपिंड बनाकर समूह में रहते है। पिंडबद्ध होने पर भी प्रत्येक घटक या अणुजीव स्वतत्र होता है। पिड छत्ता मात्र होता है एक शरीर नहीं होती। छत्ते मे प्रत्येक अणुजीव जड़ा