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मे देखी जाती है। ये असंख्य एकघटक जीव मिलकर समूह पिंड बनाते है और कललरस के तंतुओ द्वारा एक प्रकार से संबद्ध रहते है। यदि किसी एक घटक पर कोई उत्तेजना पड़ी तो वह तुरंत इन तंतुओ द्वारा शेष सब घटको तक पहुँच जाती है और सारा समूह संकुचित हो जाता है। इस प्रकार का व्यापार बहुघटक (अनेक घटको या जीवाणुओ द्वारा निर्मित। जतुओ और पौधो के घटकों के बीच भी होता है। लज्जालु नामक पौधे को ही लीजिए। जहाँ उसकी जड़ के पास भी किसी का पैर छू गया कि उत्तेजना तुरत सारे घटको में फैल जाती है और उसकी पत्तियाँ सुकड़ जाता तथा टहनियाँ झुक पडती है।

'प्रतिक्रिया' नामक आदिम मनोव्यापार का सामान्य लक्षण यह है कि उसमे चेतना का अभाव होता है। उत्तेजना पहुँची कि गति उत्पन्न हुई, जैसा कि बारूद आदि निर्जीव पदार्थों में देखा जाता है। चेतना केवल मनुष्य तथा और उन्नत जीवों मे ही मानी जा सकती है, उद्भिदो और क्षुद्र जंतुओ मे नही। उद्भिजो और क्षुद्र जतुओ मे उत्तेजना पाकर जो गति उत्पन्न होती है वह 'प्रतिक्रिया' मात्र है-अर्थात् ऐसी क्रिया है जो संकल्पकृत नहीं, किसी अंतःकरण वृत्ति द्वारा प्रेरित नही। जिनमे संवेदनवाहक सूत्रजाल केद्रीभूत होता है और जिन्हें विशिष्ट


सा होता है । अणुजीवों के सुत या रोइयाँ बाहर की ओर निकली होती हैं। इनके सहारे पिंड जल में तैरता है। पिंड का परिमाण *पयः इच के पचासवें भाग के बराबर होता है।