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के कुछ मस्तिष्कघटको मे होता है। यह व्यापार वास्तव में अंत संस्कारो का प्रतिबिंब पड़ने से होता है। पहले क्षुद्र पूर्वज जीवो मे स्मृति के जो व्यापार अचेतन रहते है वे उन्नत अंत. करण वाले जीवो मे चेतन हो जाते है। मनुष्य आदि के अंतकरण में जिन संस्कारो की धारणाएँ रहती है वे फिर ज्ञानपूर्वक उपस्थित की जाती है।

यहाँ तक तो धारणा या स्मृति की बात हुई। अब अंतः संस्कारो की श्रृंखला या भावयोजना को लीजिए। इसकी भी ऊँची नीची अनेक श्रेणियाँ है। यह भी अपने आदि रूप मे अचेतन ही रहती है और 'प्रवृत्ति' कहलाती है। यही क्रमशः बढ़ते बढते उन्नत जीवो मे चेतनवृत्ति हो जाती है और बुद्धि कहलाती है। इस भावयोजना की परंपरा अनेक रूपो मे चलती है। पर ध्यान दे कर यदि देखा जाय तो क्षुद्र से क्षुद्र अणुजीव की अचेतन अंत.संस्कार-योजना से ले कर सभ्य से सभ्य मनुष्य की विशद भावश्रृंखला तक संबंध-परंपरा का सूत्र मिलेगा। मनुष्य मे चेतन संस्कारो की योजना होती है यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। जिस हिसाब से आधिकाधिक अंत संस्कारो की योजना होती जाती है और जिस हिसाब से शुद्ध बुद्धि के विवेचन से यह योजना व्यवस्थित होती जाती है उसी हिसाब से अंतःकरणवृत्ति पूर्णता को पहुँचती जाती है। स्वप्न मे इस व्यवस्था करनेवाली विवेचनशक्ति के न रहने से पुनरुद्भूत संस्कारो की जो विलक्षण योजना होती है उससे अलौकिक दृश्य दिखाई पड़ते है। कविकल्पित रचनाओ मे, जिनमे अंतः संस्कारो की प्रकृत योजना मे उलटफेर कर के अनोखे स्वरूप खड़े