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किए जाते हैं ये अंत.संस्कार एक अत्यंत अस्वाभाविक क्रम से सयोजित होते है और साधारण देखनेवाले को अत्यंत अयुक्त प्रतीत होते हैं। मस्तिष्क के बिगड़ जाने पर जो अनेक प्रकार के रूप दिखाई पड़ते हैं वे अंत:सत्कारों की इसी अव्यवस्था के कारण। मृत पुरषों की आत्मओं का साक्षात्कार, देवदूतों का दर्शन, आकाशवाणी, इलहाम तथा इसी प्रकार की और भी अंघपरंपरा की बातें इसी अव्यवस्था से उत्पन्न हुई हैं। पर 'आभास' 'इलहान' आदि को बहुत दिनों से लोग ज्ञान का अमित भांडार समझते आ रहे हैं।

योरप में बहुत प्राचीन काल से लोग मनुष्य और पशु जी अंतःकरावृत्तियो को भिन्न भिन्न समझते आ रहे थे। * ऐसा साधारण विश्वास था, और अब मी थोड़ा बहुत है, कि मनुष्य 'बुद्धि' के अनुसार कार्य करता हैं और पशु 'प्रवृत्ति' के अनुसार। पर डारविन आदि विकाशवादियों ने इस विश्वास को भ्रांत सिद्ध कर दिया है। अपने 'ग्रहण-सिद्धांत' के आधार पर डारविन से नीचे लिखी महत्वपूर्ण बातें निर्धारित की हैं---

(१) एक ही योनि के जीवों की अंतःप्रवृत्तियों में भी कुछ न कुछ व्यक्तिगत विभिन्नता होती है तथा स्थितिसामंजस्य के नियमानुसार उनमें भी ठीक उसी झार फेरफार हो जातख है जिस प्रकार अवयवों में होता है।


  • नारद में उसे आवागमन या जन्मांतरवाद के कारण है ऐसी धारणा कभी नहीं उत्पन्न होने पाई जिसके अनुसार एक ही आत्मा मनुष्य से लेकर कीट, पतंग आदि चौरासी लाख योनियों में सरस सकती है।