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भाप की जो गहरी तह चढ़ी थी ( जैसी कि वृहस्पति मे अब तक दिखाई देती है ) वह जमी और जल का आविर्भाव हुआ, समुद्रों की सृष्टि हुई। नदियो का जल किस प्रकार पहाड़ों और ऊँचे स्थानों की मिट्टी या चट्टानो को काट काट कर अपने मार्ग में इधर उधर रेत और मिट्टी की तह पर तह जमाता जाता है इसे प्रायः सब लोग जानते है। समुद्र भी सदा इसी व्यापार में लगा रहता है और अपने तटों की मिट्टी या चट्टानो को काट काट कर अपने गर्भ में बिछाता जाता है। सारांश यह कि जल का यह कार्य ही है। आदि काल से ही वह ऊँचे स्थानो की चट्टानो को रेत, मिट्टी आदि के रूप में अपने नीचे बिछाता चला आ रहा है। यदि पृथ्वी पर केवल जल ही कार्य करता होता तो पृथ्वी का सारा तल कब को जल के भीतर होगया होता और इस पृथ्वी के गोले के ऊपर जल ही जल होता, सूखी ज़मीन कही न होती। पर पृथ्वी के ठोस आवरण के भीतर तो अभी द्रव अग्नि का गोला ही है जो ऊपर पपड़ी छोड़ता हुआ क्रमश ठढा होता चला जाता है। अतः गर्भस्थ प्रचंड ताप की शक्ति दबाव पाकर समय समय पर पपड़ी के रूप में जमे हुए आग्नेय द्रव्य तथा पिघली हुई चट्टानों को बड़े वेग से ऊपर की ओर फेका करती है जिससे बड़े बड़े पहाड़ निकलते है और कम गहरे समुद्रो का तले भी-सूखे स्थल के रूप में उठा करता है। भूकंप, ज्वालामुख पर्वतों के स्फोट इसी आभ्यतंर ताप के प्रभाव से होते हैं। भूकंप के धक्को से कहीं एकबारगी समूचा पहाड़ निकल पड़ा है, कहीं पहाड़ी की पहाड़ी नीचे