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संबंध नहीं। इच्छानुसार गति देख कर ही सामान्यतः कर्म- संकल्प की स्वतंत्रता का भान लोगो को होता है। पर विकाश सिद्धांत और शरीरशास्त्र की दृष्टि से यदि संकल्प की परीक्षा की जाय तो मालूम होगा कि वह मनोरस का एक व्यापक गुण है। एक घटक अणुजावो मे प्रतिक्रिया के जो जड़ व्यापार हम देखते है वे उन मूल प्रवृत्तियो से उत्पन्न है जिसका जीवन तत्त्व से नित्य संबंध है। पौधो तक मे ये प्रवृत्तियाँ पाई जाती है। कुछ पौधे अपनी पत्तियो को जिस ओर प्रकाश होता है उसी और प्रवृत्त करते हैं। जिन जीवो मे प्रतिक्रिया का त्रिघटकात्मक करण होता है अर्थात् संवेदनग्राहक घटक और क्रियोत्पादक घटक के बीच मे एक तीसरे मनोघटक की स्थापना होती है, उन्हीमे संकल्प नामक व्यापार देखा जाता है। क्षुद्र जीवो मे यह संकल्प अचेतन रूप मे रहता है। जिन जीवो मे चेतना होती है अर्थात् अंतकरण की क्रिया का प्रतिबिब अंतःकरण मे पड़ता है उन्हीमे संकल्प उस कोटि का देखा जाता है जिसमे स्वतंत्रता का आभास जान पड़ता है। मस्तिष्क के विकाश और अंतःकरण की उन्नति के कारण संवेदन, गति आदि की आंतरिक क्रियाएँ जितनी ही क्षिप्र होती जाती है उनका परस्पर संबंध उतना ही अव्यक्त होता जाता है। संबंध के अव्यक्त होने के कारण ही स्वातंत्र्य की भ्रांति होती है। पर अब यह अच्छी तरह सिद्ध हो गया है कि संकल्प किया हुआ प्रत्येक कर्म व्यक्ति के अंगविन्यास और प्राप्त परिस्थिति के अनुसार ही होता है। प्रवृत्ति का सामान्य रूप तो वंशपरंपरानुसार पूर्वजो द्वारा प्राप्त होकर पहले से निर्धारित रहता है। कर्म विशेष