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का जो संक्ल्प होता है वह जिस क्षण जैसी परिस्थिति होती है उसके अनुकूल परिवर्तन का आयोजन मात्र है। उस क्षण जो मनोवेग सब से प्रबल होता है उसीके अनुसार प्राणी कर्म करता है। *

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  • कर्मन्वातव्य के विषय में धार्मिक में भी मतभेद है। कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर की प्रेरणा ही से मनुष्य सब कार्य करता है। कुछ लोग कर्मो की वासना पूर्वकृत कर्मों के अनुसार मानते हैं। पर अधिकाश लोग वही मानते है कि मनुष्य की कर्मसुकल्पवृत्ति सवथा स्वतत्र है। यह बतला देना भी आवश्यक है कि कर्मसकल्पवृत्ति को 'इच्छा' का पर्याय न समझना चाहिए।

कर्मस्वातत्र्य को लेकर पाश्चात्य दार्शनिकों में बहुत विवाद हुआ है। काट ने कर्म सकल्पवृत्ति को सर्वथा स्वतंत्र बतलाया है और कहा है कि मनोविज्ञान के नियमों के अनुसार उसका विचार नहीं हो सकता। अंत:करण की कोई ऐसी वृत्ति नहीं जिससे उसका कार्यकारण सबध हो, जो उसे अवश्य उत्पन्न ही करती हो। रहे बाह्य जगत् के नियम उनसे भी वह बद्ध नहीं। वह उन त्वप्रवर्तित नियमों को ही मानती है जिन्हें 'धर्मनियम' कहते है ( दे० प्रकरण १९) । स्पिनोजा और हयूम कर्मसंकल्पवृत्ति को कार्यकारण सबध के अतर्गत मानते हैं। स्पिनोजा ने कहा है कि लोगो का यह समझना भ्रम है कि कर्म करने में हम स्वतंत्र है। बात यह है कि उन्हें अपने कर्मो का बोध तो होता है पर उन कारणो का बोध नहीं होता जिनके द्वारा वे निर्धारित होते हैं। हैकल ने स्पिनोजा