पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/२७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

आठवाँ प्रकरण।

आत्मा का गर्भविकाश।

मनुष्य की आत्मा को हम चाहे जिस रूप को समझे पर यह निश्चित है कि उसकी भी जीवनकाल मे क्रम क्रम से वृद्धि हेाती है। अतः मनोव्यापारो के निरूपण के लिए गर्भविधान


के तत्वाद्वैतवाद ही का अनुसरण किया है अत: उसने इस विषय मे उसी का सिद्धात मान्य ठहराया है।

भारतीय विचारपद्धति मे 'कर्मबधन' और 'आत्मस्वातत्र्य' की बडी गूढ व्याख्या की गई है। वेदातसूत्र के 'जविकतृत्वाधिकरण' मे जीव कर्ता अर्थात् कर्म करने मे स्वतत्र है या नहीं इसका विचार किया गया है। कर्मविपाक मे सचित, प्रारब्ध और किमाण ये तीन भेद कर्म के किए गए हैं जिससे सिद्ध होता है कि एक कर्म बीज रूप से दूसरे को उत्पन्न करता है। फिर 'आत्मस्वातत्र्य' या कर्मसकल्पवृत्ति का स्वातन्य कहाँ रहा ? वेदात जान द्वारा मोक्ष बतलाता है। पर ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी मनुष्य स्वतत्र नहीं। वेदाती इसका उत्तर कर्म के 'आरब्ध' और 'अनारब्ध' दो भेद कर के इस प्रकार देते है कि आरब्ध कर्म, जिनका भोग आरभ हो चुका है, वे तो भोगने ही पड़ेगे पर अनारब्ध कर्मों का ज्ञान से पूर्णतया नाश किया जा सकता है। 'कर्मबंधन' के साथ सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने का स्वातत्र्य भी बराबर रहता है। यही आत्मस्वतत्र्य है।