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इन सिद्धांतों के द्वारा यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन का आदि होती है। दोनों बीजघटकों का जिस घड़ी संयोग होता है वही घड़ी अंकुरघटक के शरीर और आत्मा दोनों की उत्पत्ति की है। अत: लोगों का यह कहना कि आत्मा अनादि और अमर है प्रलाप मात्र है। इसी प्रकार यह भावना भी असंगत हैं कि गर्भ के भीतर ईश्वर शरीर को गढ़ता है। जीवन की उत्पत्ति माता पिता के संयोग से होती है। इस संयोग के लिए यह आवश्यक है कि शुक्रकीटाणु का गर्भाशय में प्रवेश हो, दर्शन या आलिगन मात्र से गर्भाधान नही हो सकता। स्थलचारी जीवों में गर्भाधान की यही रीति है कि गर्भाशय में गर्भोत्पादक तत्व पहुँचाया जाय। कुछ क्षुद्र जलचर जंतुओ मे दूसरे प्रकार की व्यवस्था है। उनमें नर मादा अपना अपना वीर्य और रजोबिंदु जल में डाल देते हैं जिनका संयोग बाहर ही बाहर किसी अवसर पर हो जाता है। ऐसे जंतुओं में वास्तविक मैथुन नहीं होता, अत: उनमें प्रेम का वह मानसिक उदार नहीं देखा जाता जो उन्नत जीवों में इतना अधिक पाया जाता है। क्षुद्र अमैथुनीय जंतुओं में स्त्री-पुरुष-भेदसूचक कुछ ऐसे चिह्न भी नहीं होते जैसे बारहसिंगों के सींग, पुरुषों की दाढ़ी, नरमोर का सुंदर चित्रित पुच्छवितान।

ऊपर बताया जा चुका है कि शिशु माता और पिता दोनों के मानसिक गुण ग्रहण करता है। दोनों के स्वभाव, लक्षण, संकल्प की दृढ़ता, प्रतिभा आदि गुण उसमें वंशपरंपरा के प्राकृतिक नियमानुसार आते हैं। माता-पिता के ही नहीं