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घँस कर ग़ायब हो गई है। ये सच भूगर्भस्थ ताप के उग्र व्यापार है जिन पर हमारा ध्यान जाता है। पर ये व्यापार बराबर इतने धीरे धीरे भी होते रहते हैं कि हमे जान नही पड़ते। पृथ्वी के नाना भागो की परीक्षा करने से देखा जाता है कि कोई खड क्रमश ऊपर की ओर उठ रहा है और कोई नीचे की ओर धँस रहा है। इस प्रकार जल को नई नई परते जमाने के लिये वरावर सामग्री मिलती जाती है।

नीचे के आग्नेय द्रव्य के ऊपर आने और पिघले हुए द्रव्य के ठढे होकर जमने से जो चट्टाने वनी है उन्हें अग्न्युपल या बिना परत की चट्टान कहते हैं। जल के भीतर थिरा कर परत पर परत जमने से जो चट्टाने (चट्टान शब्द से अभिप्राय उन सब ढेरों या तहों से है जिनसे पृथ्वी का ठोस ऊपरी तल बना है---क्या पत्थर, क्या मिट्टी, क्या रेत, क्या कोयला, क्या खरिया सब। भूगर्भविद्या मे चट्टान शब्द की अर्थ बहुत व्यापक है ) बनी है उन्हें वरुणस्तर या परतवाली चट्टाने कहते है। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि परतवाली चट्टाने आग्नेय चट्टानों के ही ध्वस या चूर्ण से बनी हैं। जल के भीतर बनी हुई इन्ही परतवाली चट्टान की परीक्षा द्वारा मूगर्भवेत्ता पृथ्वी के नाना कल्पो और युग का विभाग करते और जंतुओ की उत्पत्ति का क्रम सूचित करते है। बात यह है कि इन्हीं की तहो के बीच पूर्व कल्प के जीवो के अवशेष (जैसै, अस्थिपंजर, पेड़ों के धड़ और डालियाँ आदि ) या उनके अस्तित्व के चिह्न (जैसे, पक्षियो के पैरो के चिह,